Showing posts with label Shubha poem. Show all posts
Showing posts with label Shubha poem. Show all posts

Saturday, July 16, 2016

हिम्मतवारी



The 'Determined' are here to stay, they go on and on as they just eye their aim. Just tried to #speakout for the determined women. They are no more timid or dependent, they can change the world! Tortures n pain don't bother them anymore...

जिंदगी मार मार क खड़ी करे
जो टूट गई थी सारी सी
बन गयी कड़ी कुछ हो न हो
अब नही रही दुखियारी सी

कितना तोड़े , मै ना टूटी
हल्ला गुल्ला सरफोडी सी
कितने जीत ले युद्ध मोंडे
जिंदगी न जीतें इक मोंडी सी

सौ काट काट के कर टुकड़े
कैसे कटे ये हिम्मत सँकरी सी
चित पड़ जावेगा भूतल ते
इक वार करूँ जो हँसरी सी

ना मै ,ना टूटा कोई सपना मेरा
ना रहूँ कभी बिचारी सी
भौचक्का सा तू भी सोचेगा
है कौन ये हिम्मतवारी सी 


Saturday, June 27, 2015

मायका- dedicated to all married woman

मायका

Dedicated to all married women who not only change their home after marriage, they create a home for their life partner. This is this supreme sacrifice which makes a woman reverent as only she knows what she lets go off for her family and nothing can fill or replace the emptiness thus created. The place of her parents home or her birth home.

मायका

छूटी है माँ की लोरी
उसकी राह तकती आँखें
छूटा पापा का दुलार
और बचाये गुस्से से जब वो झाँकें
मुश्किल बडा है फिर से....
किसी को माँ बाप कहना

खेलती कूदती गलियाँ छूटी
छूटी है परियों सी गुडिया
छूटा सखियों का साथ
शरारत की वो पुडिया
सारे रेशम ले ले....
दे कोई बचपन पहना

छूटा है खुला आसमान
जिसमे पँछी सा उडता मन हर पल
बाँध नही था आँखों पे
बहते थे सपने कल कल
आज खुद ही रखा पिजँरे  मे...
खुद के मन की मैना

छूटा है यहाँ तुम्हारा मन ओ बहना
रख लो सब जायदाद
पहन लो सारा गहना
मिले न कहीँ मन को चैना
मायका तो मायका....
उसका क्या कहना !!


Saturday, September 15, 2012

हिंदी दिवस (के उपलक्ष्य में )

हिंदी दिवस (के उपलक्ष्य में )

पर्व है सम्मान का
भारत के प्राण का
हिंदी के मान का
भाषाओँ के निर्वाण का
भविष्य के निर्माण का

कितनी मृदुल कितनी सरल
तरंग बहती रहती अविरल
सरिता का जैसे हो पर्याय
अचरज है हिंदी के रूप में
कितनी शीतलता समाये

भाषाएँ है अनेक, हिंदी बस एक
धर्म सम्प्रदाय निरपेक्ष
हिंदी एक आभास है
भारत के गीत संगीत
हिंदी ही श्वास है

हिंदी दिवस पे
हम सभी
ये प्रतिज्ञा उठाएं
हिंदी सबसे प्रतिष्ठित हो
उसे सर्वस्व बनाएं 


Saturday, September 1, 2012

सब बंधन खोल दिए तुमने (for my teachers..Happy teacher's day)

As Teacher's Day is approaching, this one is for all my teachers, who, made me, "ME"....

सब बंधन खोल दिए तुमने .....

ज्ञान के संसार के
आकाँक्षाओं के आसमान के
जीवन के वरदान के
सब अमृत बोल दिए तुमने
सब बंधन खोल दिए तुमने ...

सोच के विचार के
रिश्तों के आचार के
उमंगों के संचार के
सब स्पंदन घोल दिए तुमने
सब बंधन खोल दिए तुमने ...

                       हम पंख फडफडाते ही रह जाते
                       उड़ने की कला जो न तुम सिखाते
                       हम उड़ के भी न उड़ पाते
                       संघर्ष जो न तुम हमें बताते
                       हम आज आसमानों में जो हैं
                       तुम्हारे ही आभारी हैं
                       तुम साथ रहे जो पग पग कल
                       आज हम उड़ने के अधिकारी हैं

ये जीवन जीने के लिए, दे दिए सपने नये
हम सभी झुके हैं चरणों में, करते है शत नमन तुम्हे
सब बंधन खोल दिए तुमने।।



Friday, August 24, 2012

आकांक्षा

I like the contradiction present in all verses of this poem, check if you like it too..

आकांक्षा 

पाना चाहते हो मुझे अगर 
तो पहले तुम खोना सीखो 
मुस्कुराना हो जीवन भर 
तो पल भर का रोना सीखो
                                    
                             मै तो वही हूँ, जहाँ भी देखो 
                             जहाँ भी चाहो, तुम मुझको 
                             पास जो आना हो इतना 
                             तो पहले दूर जाना सीखो 

कोई भी रिश्ता, हम दोनों के 
साथ से पहले, एहसास है 
पास ही रहना, नहीं ज़रूरी 
तेरी दूरियां भी ख़ास हैं 
                             
                              प्यार में मेरे जीना चाहो 
                              गर जीवन भर, तुम यूँ ही 
                              प्यार में मेरे इस जीवन 
                              और हर जीवन 
                              पहले मर जाना सीखो। 



Wednesday, August 22, 2012

Sometimes its good to speak the Truth..face whatever you are hiding within.to Yourself..this poem is a mirror of the times I would like to hide from my life.......

3rd August 2012
8:20 am
शैतान 

मन का शैतान
मुझे सोने नहीं देता
मेरे चेतन पे हावी हा क्षण
नसों में दौड़ता विलक्षण
अपनी विकरालता ये
खोने नहीं  देता ...

          सावन भी दिखता पतझड़ सा
          बाग़बा भी दिखता मरुस्थल सा
          लोगो के चेहरों में
          हैवानो  का भाव
          सपनो में भी मुझे कर पराजित
          अपनी हार पे   रोने नहीं  देता....

ये अविरल बढ़ता
भीषण होती विभत्सता
मेरे मानस को नित
भस्मीभूत   करता
चला जा रहा
चलता ही जा रहा
      
          मै निर्बल सी , आहत मन
          अवलंब रहित
          देखती हू , अश्रु सहित
          खुद को उस से हारते
          अपनाती जा रही हु
          उसकी अमानुषता

मुझसे ऐसे चिपका, बनाया यही मेरे जीने का ढंग
मुझमे  मुझसा कुछ बाकी न रहा, चढ़ा है बस शैतान का रंग
    


Tuesday, August 7, 2012

Its such an irony, very soon the things u think u Love most and are desirous of....changes to things u r over with and a routine. Their place is taken by new things...and in this quest of desire and acheiving, we lose track of our composure at times and blame it all on LIFE....below poem is one such momentous out pour...have a look:

Saturday, 4th Aug, 2012
12:30 am

Life

Life is a deceiver,
It makes you think
you got what you wanted
however, in this game
It saves your worst nightmares
to surprise you
when you least expect the same

It amuses itself
in your short sadnesses
it delights itself
in your continuing grievances
It derives pleasures
when you quit
you drop your arms and beg
you feel defeated
betrayed and cheated

Its then, Life shows its true colors
It draws a rainbow 
of hope,wishes,motivation and faith
and myriad of beautifully woven dreams
All.....but FAKE
Its a TRAP dear friend
Its a vicious never ending chain
Beware...Life is going to play Again....




Monday, August 6, 2012

This is a very strong, heart felt and story-of-every-Indian-woman poem...have a look, do let me know if you agree...

Saturday, 4th Aug,2012
1:15 am

नारी


क्यों मानू  मैं
जो तुम चाहो
क्यों ठानू मैं
जैसे कह दो
क्यों बदल लू खुद को
तुम्हारी चाल में
क्यों मैं ढालू खुद को
तुम्हारी खाल में
                           क्योंकि मैं नारी हूँ
                           विवाहित हूँ
                           तुम्हारी नज़र में बेचारी हूँ
                           माँ की मजबूरी
                           पिता की लाचारी हूँ
सृष्टि बनी ,
हम दो स्तम्भ बने इसके ;
फिर क्यों मुझे खुद से
कमज़ोर आंकते हो .
कैसा  भी नर हो , जी सकता है
तो हे समाज वालों
कोई कमी हो नारी में
तो उसे अपेक्षित क्यों मानते हो ?
                            इस संसार के खेल भी
                            अजब निराले हैं
                            मन के विकार वाले नर इसी जग में
                            पीड़ित नारी के रखवाले हैं
तुम चाहो तो मैं जियू
तुम चाहो तो मर जाऊ
कभी सीता , कभी सावित्री
कभी गंगा बन के तुमको तर जाऊं
                           तुम नियम बनाओगे
                           सब मुझपे थोपने को
                           और जब जी मचल जाये
                           खुद के नियमो को तुम तोड़ो
जहां कहो तुम वो मेरा मंदिर हो
जहां कहो मैं सर झुकाऊं
साथी नहीं, आश्रित समझू खुद को
प्यार का मैं क़र्ज़ चुकाऊं
                            गर ऐसा तुम रहे सोचते
                            हमेशा नारी को रहे कोसते
                            तो रहे याद
                            दुर्गा मैं हूँ , शक्ति मैं हूँ
                            जीवन की उत्पत्ति मैं हूँ
आज अगर अवलंब बनी हूँ
कल खुद का जीवन भी चला लूंगी
जिन हाथो में थामाँ आँचल
उनमे ही हल भी उठा लूंगी
                           नारी के बिना हो तुम अधूरे
                           जैसे अम्बर है बिन थल
                           नारी ही है संपूर्ण सृष्टि
                           नारी के बिना नहीं आएगा कल


   
                      


Saturday, August 4, 2012

Wrote this poem recently, wanted to share and let the world know, everyone faces this at times....

1st Aug/6:45 pm

'रिश्ता'

बहुत कोशिशे सँवारने की
बहुत ख्वाहिशेंr निभाने की
बहुत उम्मीदें बनाने की 
सब अधूरी रह गईं....


न जाने क्यों ये व्यर्थ हुई
मेरे पशोपेषित मन में
इसे ले के
हमेशा जंग हुई


कितने आंसू मेरे
इसने पिए
कितना समय इसपे
मैंने गंवाया


ये हर पल बिगड़ता
मेरी ही ओर 
उँगलियाँ उठाता
मेरा संबल गिराता


मुझे अन्दर अन्दर खा रहा
मानसिक क्लेश है
जिसे हम संजोये हुए है
कह के 'रिश्ता' 
वह तो बस
अनचाहे से
एक बंधन का अवशेष है