This is a very strong, heart felt and story-of-every-Indian-woman poem...have a look, do let me know if you agree...
Saturday, 4th Aug,2012
1:15 am
नारी
क्यों मानू मैं
जो तुम चाहो
क्यों ठानू मैं
जैसे कह दो
क्यों बदल लू खुद को
तुम्हारी चाल में
क्यों मैं ढालू खुद को
तुम्हारी खाल में
क्योंकि मैं नारी हूँ
विवाहित हूँ
तुम्हारी नज़र में बेचारी हूँ
माँ की मजबूरी
पिता की लाचारी हूँ
सृष्टि बनी ,
हम दो स्तम्भ बने इसके ;
फिर क्यों मुझे खुद से
कमज़ोर आंकते हो .
कैसा भी नर हो , जी सकता है
तो हे समाज वालों
कोई कमी हो नारी में
तो उसे अपेक्षित क्यों मानते हो ?
इस संसार के खेल भी
अजब निराले हैं
मन के विकार वाले नर इसी जग में
पीड़ित नारी के रखवाले हैं
तुम चाहो तो मैं जियू
तुम चाहो तो मर जाऊ
कभी सीता , कभी सावित्री
कभी गंगा बन के तुमको तर जाऊं
तुम नियम बनाओगे
सब मुझपे थोपने को
और जब जी मचल जाये
खुद के नियमो को तुम तोड़ो
जहां कहो तुम वो मेरा मंदिर हो
जहां कहो मैं सर झुकाऊं
साथी नहीं, आश्रित समझू खुद को
प्यार का मैं क़र्ज़ चुकाऊं
गर ऐसा तुम रहे सोचते
हमेशा नारी को रहे कोसते
तो रहे याद
दुर्गा मैं हूँ , शक्ति मैं हूँ
जीवन की उत्पत्ति मैं हूँ
आज अगर अवलंब बनी हूँ
कल खुद का जीवन भी चला लूंगी
जिन हाथो में थामाँ आँचल
उनमे ही हल भी उठा लूंगी
नारी के बिना हो तुम अधूरे
जैसे अम्बर है बिन थल
नारी ही है संपूर्ण सृष्टि
नारी के बिना नहीं आएगा कल