Saturday, August 4, 2012

Wrote this poem recently, wanted to share and let the world know, everyone faces this at times....

1st Aug/6:45 pm

'रिश्ता'

बहुत कोशिशे सँवारने की
बहुत ख्वाहिशेंr निभाने की
बहुत उम्मीदें बनाने की 
सब अधूरी रह गईं....


न जाने क्यों ये व्यर्थ हुई
मेरे पशोपेषित मन में
इसे ले के
हमेशा जंग हुई


कितने आंसू मेरे
इसने पिए
कितना समय इसपे
मैंने गंवाया


ये हर पल बिगड़ता
मेरी ही ओर 
उँगलियाँ उठाता
मेरा संबल गिराता


मुझे अन्दर अन्दर खा रहा
मानसिक क्लेश है
जिसे हम संजोये हुए है
कह के 'रिश्ता' 
वह तो बस
अनचाहे से
एक बंधन का अवशेष है 


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