Friday, August 24, 2012

आकांक्षा

I like the contradiction present in all verses of this poem, check if you like it too..

आकांक्षा 

पाना चाहते हो मुझे अगर 
तो पहले तुम खोना सीखो 
मुस्कुराना हो जीवन भर 
तो पल भर का रोना सीखो
                                    
                             मै तो वही हूँ, जहाँ भी देखो 
                             जहाँ भी चाहो, तुम मुझको 
                             पास जो आना हो इतना 
                             तो पहले दूर जाना सीखो 

कोई भी रिश्ता, हम दोनों के 
साथ से पहले, एहसास है 
पास ही रहना, नहीं ज़रूरी 
तेरी दूरियां भी ख़ास हैं 
                             
                              प्यार में मेरे जीना चाहो 
                              गर जीवन भर, तुम यूँ ही 
                              प्यार में मेरे इस जीवन 
                              और हर जीवन 
                              पहले मर जाना सीखो। 



Thursday, August 23, 2012

तुम बिन...

This one is short and sweet and goes out for all those who were and are always with me!!

तुम बिन ...

ज़िन्दगी है कुछ  अधूरी,
चाहतें नहीं है पूरी...
हर बात में है मजबूरी
            तुम बिन ...

ख़ामोशी देती है  साथ,
यादों की होती बरसात ...
अनजानी सी लगती हर बात
             तुम बिन ...

लगे हर चेहरा, चेहरा तुम्हारा ,
उड़ता  हर बदल, आवारा..
बहका बहका सा जहां ये सारा
              तुम बिन...

यूँ  ही हो जाती नाराज़,
एहसास मेरे बन गए राज़ ...
मन रहता हर पल उदास
             तुम बिन....


Wednesday, August 22, 2012

Sometimes its good to speak the Truth..face whatever you are hiding within.to Yourself..this poem is a mirror of the times I would like to hide from my life.......

3rd August 2012
8:20 am
शैतान 

मन का शैतान
मुझे सोने नहीं देता
मेरे चेतन पे हावी हा क्षण
नसों में दौड़ता विलक्षण
अपनी विकरालता ये
खोने नहीं  देता ...

          सावन भी दिखता पतझड़ सा
          बाग़बा भी दिखता मरुस्थल सा
          लोगो के चेहरों में
          हैवानो  का भाव
          सपनो में भी मुझे कर पराजित
          अपनी हार पे   रोने नहीं  देता....

ये अविरल बढ़ता
भीषण होती विभत्सता
मेरे मानस को नित
भस्मीभूत   करता
चला जा रहा
चलता ही जा रहा
      
          मै निर्बल सी , आहत मन
          अवलंब रहित
          देखती हू , अश्रु सहित
          खुद को उस से हारते
          अपनाती जा रही हु
          उसकी अमानुषता

मुझसे ऐसे चिपका, बनाया यही मेरे जीने का ढंग
मुझमे  मुझसा कुछ बाकी न रहा, चढ़ा है बस शैतान का रंग
    


Tuesday, August 21, 2012

This poem was written about 7-8 yrs ago, I  was studying....and so you  will feel the surge of determination as I felt while writing it. Its like an inspiration to,whenever I am down an out....what do you  think shouldn't I get  this added to  School books....joking..ami asking too much???

"निश्चय "

मार्ग  विषम है ,
मगर विकट सी, इच्छा भी है
जाने  की
ऊँचे पर्वत, गहरी नदिया
चाँद और  सूरज
पाने की ;

बहुत दिलासे देता है मन
यूँ  भी  तो है सुखमय जीवन
फिर भी ये हिम्मत है कहती
धुन पक्की है दीवाने की;

रुकना मत
तेर्री ज़रुरत
जीवन के पार है जाने की
जीवन से जीवन पाने की;

चलना  नहीं छोड़ सकती मै,
मेरा  मन ये कहता हर पल
जिस क्षण थक के गिर जाउंगी,
जीवन हो   जायेगा मरुस्थल;

बहुत दूर, धुंधली काया सी
मेरी  मंजिल दिखती है
उसको भी तो आस लगी  है
मेरे उसको पाने की.
मुझको गले लगाने की !!!


Tuesday, August 7, 2012

Its such an irony, very soon the things u think u Love most and are desirous of....changes to things u r over with and a routine. Their place is taken by new things...and in this quest of desire and acheiving, we lose track of our composure at times and blame it all on LIFE....below poem is one such momentous out pour...have a look:

Saturday, 4th Aug, 2012
12:30 am

Life

Life is a deceiver,
It makes you think
you got what you wanted
however, in this game
It saves your worst nightmares
to surprise you
when you least expect the same

It amuses itself
in your short sadnesses
it delights itself
in your continuing grievances
It derives pleasures
when you quit
you drop your arms and beg
you feel defeated
betrayed and cheated

Its then, Life shows its true colors
It draws a rainbow 
of hope,wishes,motivation and faith
and myriad of beautifully woven dreams
All.....but FAKE
Its a TRAP dear friend
Its a vicious never ending chain
Beware...Life is going to play Again....




Monday, August 6, 2012

This is a very strong, heart felt and story-of-every-Indian-woman poem...have a look, do let me know if you agree...

Saturday, 4th Aug,2012
1:15 am

नारी


क्यों मानू  मैं
जो तुम चाहो
क्यों ठानू मैं
जैसे कह दो
क्यों बदल लू खुद को
तुम्हारी चाल में
क्यों मैं ढालू खुद को
तुम्हारी खाल में
                           क्योंकि मैं नारी हूँ
                           विवाहित हूँ
                           तुम्हारी नज़र में बेचारी हूँ
                           माँ की मजबूरी
                           पिता की लाचारी हूँ
सृष्टि बनी ,
हम दो स्तम्भ बने इसके ;
फिर क्यों मुझे खुद से
कमज़ोर आंकते हो .
कैसा  भी नर हो , जी सकता है
तो हे समाज वालों
कोई कमी हो नारी में
तो उसे अपेक्षित क्यों मानते हो ?
                            इस संसार के खेल भी
                            अजब निराले हैं
                            मन के विकार वाले नर इसी जग में
                            पीड़ित नारी के रखवाले हैं
तुम चाहो तो मैं जियू
तुम चाहो तो मर जाऊ
कभी सीता , कभी सावित्री
कभी गंगा बन के तुमको तर जाऊं
                           तुम नियम बनाओगे
                           सब मुझपे थोपने को
                           और जब जी मचल जाये
                           खुद के नियमो को तुम तोड़ो
जहां कहो तुम वो मेरा मंदिर हो
जहां कहो मैं सर झुकाऊं
साथी नहीं, आश्रित समझू खुद को
प्यार का मैं क़र्ज़ चुकाऊं
                            गर ऐसा तुम रहे सोचते
                            हमेशा नारी को रहे कोसते
                            तो रहे याद
                            दुर्गा मैं हूँ , शक्ति मैं हूँ
                            जीवन की उत्पत्ति मैं हूँ
आज अगर अवलंब बनी हूँ
कल खुद का जीवन भी चला लूंगी
जिन हाथो में थामाँ आँचल
उनमे ही हल भी उठा लूंगी
                           नारी के बिना हो तुम अधूरे
                           जैसे अम्बर है बिन थल
                           नारी ही है संपूर्ण सृष्टि
                           नारी के बिना नहीं आएगा कल


   
                      


This is one of my old poems, I love this one...

साथी

अनजाने मन को मेरे, ये बढ़ा दिया है किसने हाथ
हौले से कर दिया ये वादा, सुख दुःख में हम देंगे साथ

आज अचानक किसने ये , अँधेरे में ज्योति जलाई
अब तो निश्चलता में भी,  चंचलता पड़ती दिखाई

मेरे सूनेपन की अमावस्या में, किसने आ दिवाली मनाई
डाला है किसने इस मन में, जीवन का ये नया आभास

आँखों की मृदुल भाषा से, किसने बोले ये संवाद
दुखी मन तू भी चख ले, जीवन का ये मीठा स्वाद


Saturday, August 4, 2012

Wrote this poem recently, wanted to share and let the world know, everyone faces this at times....

1st Aug/6:45 pm

'रिश्ता'

बहुत कोशिशे सँवारने की
बहुत ख्वाहिशेंr निभाने की
बहुत उम्मीदें बनाने की 
सब अधूरी रह गईं....


न जाने क्यों ये व्यर्थ हुई
मेरे पशोपेषित मन में
इसे ले के
हमेशा जंग हुई


कितने आंसू मेरे
इसने पिए
कितना समय इसपे
मैंने गंवाया


ये हर पल बिगड़ता
मेरी ही ओर 
उँगलियाँ उठाता
मेरा संबल गिराता


मुझे अन्दर अन्दर खा रहा
मानसिक क्लेश है
जिसे हम संजोये हुए है
कह के 'रिश्ता' 
वह तो बस
अनचाहे से
एक बंधन का अवशेष है